साभार : railwarta.com
नईदिल्ली। हड़ताल को टालने का निर्णय फेडरेशनों के साथ-साथ इनसे जुड़ी यूनियनों को भारी पडऩे वाला है। सूत्रों का दावा है कि केन्द्र सरकार द्वारा दबाव डालने से इन नेताओं ने बिना किसी प्रकार के लिखित समझौता किये हड़ताल से भागने में ही अपनी भलाई समझी। वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ हड़ताल के लिये आमदा कर्मचारियों को सारा गुस्सा अब नेताओं पर निकल रहा है। वहीं फेडरेशनों के नेताओं ने दावा किया कि सरकार ने उनके दबाव में आकर समिति गठन कर न्यून्यतम वेतन तथा फिटमेंट फामूर्ला में बदलाव के संकेत दिये हैं। वहीं कर्मचारियों का कहना है कि सरकार ने इन नेताओं के हाथ में झुनझुना थमा दिया है।
कर्मचारियों को लगने लगा है कि अब रेलवे में इन नेताओं का विकल्प जरूरी हो गया है ताकि इनकी मनमानी पर अंकुश लगाया जा सके। कर्मचारियों के बीच अब यह नारा लग रहा है शौक नहीं मजबूरी है अब दोनों यूनियनों को हटाना जरूरी है…। इसी एक नारे से कर्मचारियों की भावनाओं को समझा जा सकता है। फेडरेशनों के निर्णय से कर्मचारियों के बीच काम करने वाले यूनियन पदाधिकारियों के सामने विकट स्थिति उत्पन्न हो गई है। वह चुप होकर बैठ गये हैं। उन्होने हांलाकि हड़ताल स्थगित करने को अपनी जीत बताने की कोशिश की लेकिन जिस प्रकार के उनको जबाव सुनने को मिले उससे उन्होने चुप रहना ही बेहतर समझा है। कर्मचारियों के बीच तेजी से यह बात फैल रही है कि जब तक सेवानिवृत्त लोगों को घर नहीं बैठाया जाता तब तक उनका भला होने वाला नहीं है। हड़ताल को स्थगित करने के फैसले से कर्मचारी बिफरे हुये हैं। उन्हे लग रहा है कि नेताओं ने उनके साथ धोखा किया है। पहले से ही वेतन आयोग के खिलाफ सरकार को कोसने वाले यह लोग अब नेताओं को सबसे बड़ा धोखेबाज बताने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। इनको लग रहा है कि सरकार के साथ फे डरेशनों के नेताओं ने कोई गुप्त समझौता किया है जिसके कारण हड़ताल को रद्ध किया गया है।
कर्मचारियों को किसी भी समिति पर कोई विश्वास नहीं है। वह तो 11 जुलाई को हड़ताल या फिर उठाये गये मुद्धों का हल चाहते थे। लेकिन फेडरेशनों के नेताओं ने जिस प्रकार से सरकार के सामने समर्पण किया उसे लेकर वह काफी आक्रोशित हैं। उन्हे लग रहा है कि नेताओं ने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, हड़ताल के नाम पर उन्हे बरगलाया गया।
वहीं दूसरी ओर अब जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले यूनियन के पदाधिकारियों के सामने अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है। वह पद जाने के डर से अपनी यूनियन के निर्णय का विरोध नहीं कर पा रहे हैं लेकिन उन्हे भी लग रहा है कि बड़े नेताओं ने गलत किया है। पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया में यह पदाधिकारी हड़ताल को लेकर जमकर माहौल बनाने में लगे हुये थे। अब इनके पास कोई जबाव नहीं है। कर्मचारी पदाधिकरियों से पूछ रहे हैं कि उनके नेताओं ने कितने में समझौता किया है…। सोशल मीडिया पर कई दिनों से छाये यह नेता अब भूमिगत हो गये हैं।
दरअसल हड़ताल स्थगित करने के निर्णय को सही ठहराने की उन्होने कोशिशें की लेकिन कर्मचारियों के जबाव सुनकर इन्होने चुप रहना ही बेहतर समझा। कल तक सरकार को वेतन आयोग की सिफारिशों को लेकर निशाना बना रहे यह कर्मचारी अब दोनों फेडरेशनों को निशाना बनाये पड़े हुये हैं।
नईदिल्ली। हड़ताल को टालने का निर्णय फेडरेशनों के साथ-साथ इनसे जुड़ी यूनियनों को भारी पडऩे वाला है। सूत्रों का दावा है कि केन्द्र सरकार द्वारा दबाव डालने से इन नेताओं ने बिना किसी प्रकार के लिखित समझौता किये हड़ताल से भागने में ही अपनी भलाई समझी। वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ हड़ताल के लिये आमदा कर्मचारियों को सारा गुस्सा अब नेताओं पर निकल रहा है। वहीं फेडरेशनों के नेताओं ने दावा किया कि सरकार ने उनके दबाव में आकर समिति गठन कर न्यून्यतम वेतन तथा फिटमेंट फामूर्ला में बदलाव के संकेत दिये हैं। वहीं कर्मचारियों का कहना है कि सरकार ने इन नेताओं के हाथ में झुनझुना थमा दिया है।
कर्मचारियों को लगने लगा है कि अब रेलवे में इन नेताओं का विकल्प जरूरी हो गया है ताकि इनकी मनमानी पर अंकुश लगाया जा सके। कर्मचारियों के बीच अब यह नारा लग रहा है शौक नहीं मजबूरी है अब दोनों यूनियनों को हटाना जरूरी है…। इसी एक नारे से कर्मचारियों की भावनाओं को समझा जा सकता है। फेडरेशनों के निर्णय से कर्मचारियों के बीच काम करने वाले यूनियन पदाधिकारियों के सामने विकट स्थिति उत्पन्न हो गई है। वह चुप होकर बैठ गये हैं। उन्होने हांलाकि हड़ताल स्थगित करने को अपनी जीत बताने की कोशिश की लेकिन जिस प्रकार के उनको जबाव सुनने को मिले उससे उन्होने चुप रहना ही बेहतर समझा है। कर्मचारियों के बीच तेजी से यह बात फैल रही है कि जब तक सेवानिवृत्त लोगों को घर नहीं बैठाया जाता तब तक उनका भला होने वाला नहीं है। हड़ताल को स्थगित करने के फैसले से कर्मचारी बिफरे हुये हैं। उन्हे लग रहा है कि नेताओं ने उनके साथ धोखा किया है। पहले से ही वेतन आयोग के खिलाफ सरकार को कोसने वाले यह लोग अब नेताओं को सबसे बड़ा धोखेबाज बताने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। इनको लग रहा है कि सरकार के साथ फे डरेशनों के नेताओं ने कोई गुप्त समझौता किया है जिसके कारण हड़ताल को रद्ध किया गया है।
कर्मचारियों को किसी भी समिति पर कोई विश्वास नहीं है। वह तो 11 जुलाई को हड़ताल या फिर उठाये गये मुद्धों का हल चाहते थे। लेकिन फेडरेशनों के नेताओं ने जिस प्रकार से सरकार के सामने समर्पण किया उसे लेकर वह काफी आक्रोशित हैं। उन्हे लग रहा है कि नेताओं ने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया, हड़ताल के नाम पर उन्हे बरगलाया गया।
वहीं दूसरी ओर अब जमीनी स्तर पर कार्य करने वाले यूनियन के पदाधिकारियों के सामने अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है। वह पद जाने के डर से अपनी यूनियन के निर्णय का विरोध नहीं कर पा रहे हैं लेकिन उन्हे भी लग रहा है कि बड़े नेताओं ने गलत किया है। पिछले कई दिनों से सोशल मीडिया में यह पदाधिकारी हड़ताल को लेकर जमकर माहौल बनाने में लगे हुये थे। अब इनके पास कोई जबाव नहीं है। कर्मचारी पदाधिकरियों से पूछ रहे हैं कि उनके नेताओं ने कितने में समझौता किया है…। सोशल मीडिया पर कई दिनों से छाये यह नेता अब भूमिगत हो गये हैं।
दरअसल हड़ताल स्थगित करने के निर्णय को सही ठहराने की उन्होने कोशिशें की लेकिन कर्मचारियों के जबाव सुनकर इन्होने चुप रहना ही बेहतर समझा। कल तक सरकार को वेतन आयोग की सिफारिशों को लेकर निशाना बना रहे यह कर्मचारी अब दोनों फेडरेशनों को निशाना बनाये पड़े हुये हैं।
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